
पिछले साल प्रधानमंत्री मोदी ने ऐसी घोषणा की जो राजनीतिक रूप से नोटबंदी के बराबर हो सकती है। जल्दबाजी में उठाया गया ऐसा कदम, जिसका देश पर विनाशकारी असर हो सकता है। जम्मू-कश्मीर के लोगों को सात दशकों तक आश्वासन देने के बाद कि भारतीय संविधान के तहत राज्य का विशेष दर्जा बरकरार रहेगा, मोदी सरकार ने घोषणा कर दी कि उसने इसका एकतरफा बंटवारा कर इसे केंद्र शासित राज्य बना दिया है। अब एक साल बाद हम कहां खड़े हैं?
सरकार का बचाव करने वाले तर्क देते हैं कि स्वायत्तता ने कश्मीर घाटी में अलगाववादी हिंसा बढ़ने दी, घाटी से हिन्दू पंडितों को हटाकर इस्लामीकरण बढ़ने दिया और विशेष दर्जे के कारण प्रगतिवादी भारतीय कानून लागू नहीं हो सके। यह सब सही है, लेकिन यह धारा 370 होने के बावजूद हो रहा था, उसके कारण नहीं। अब एक साल बाद जम्मू-कश्मीर में अलगाव की भावना बढ़ गई है और व्यापक विरक्ति में बदल गई है। हिंसा जारी है और तनाव पहले से ज्यादा है। पाक सीजफायर का उल्लंघन कर रहा है। सेना और आतंकियों में मुठभेड़ें बढ़ी हैं।
समर्थक कहते हैं कि विशेष दर्जा हटने से राज्य का ज्यादा आर्थिक विकास होगा, चूंकि गैर-कश्मीरी यहां निवेश कर सकेंगे। निश्चित ही राज्यपाल ने राज्य के बाहर के निवेशकों को कॉन्फ्रेंस के लिए बुलाया, रिलायंस समेत बड़े कॉर्पोरेशनों की बात हुई। ये सभी पहल लॉकडाउन के कारण ठप हो गईं। यह चिंता बढ़ गई है कि जैसा नोटबंदी और पीएम मोदी की कोरोना रणनीति के साथ हुआ, इस फैसले से कम समय में हुए नुकसान की भरपाई लंबे समय के सैद्धांतिक फायदों से नहीं हो पाएगी।
यह फैसला भारत की लोकतांत्रिक संस्कृति के साथ हिंसा है। सरकार ने जम्मू-कश्मीर के लोगों और उनके द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों से पूछे बिना ही उनका भारत के साथ लोकतांत्रिक संबंध बदल दिया। एक पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को 232 दिन नजरबंद रखा। महबूबा मुफ्ती यह लेख लिखे जाने तक कैद थीं। यही हाल वरिष्ठ कांग्रेस नेता सैफुद्दीन सोज़ का है।
यह हमारे लोकतंत्र के साथ धोखा है। ऐसा भविष्य में बाकी राज्यों के साथ भी किया जा सकता है। कश्मीर का घटनाक्रम सबक देता है कि सरकारों द्वारा किए गए संवैधानिक वादों को कभी नहीं तोड़ना चाहिए। खासतौर पर संदेहास्पद दांवों से, क्योंकि यह ऐसी मिसाल पेश करता है, जिसे देश में कहीं और दोहराया गया तो पूरा गणतंत्र अस्थिर हो जाएगा।
जम्मू-कश्मीर राज्य की सहमति लेने का दावा कर, ‘राज्य’ का मतलब मोदी सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपाल को मानकर तथा जम्मू-कश्मीर द्वारा चुने गए निकाय की जगह दिल्ली की संसद को ‘विधायिका’ मानकर केंद्र सरकार ने राज्य के लोगों और लोकतांत्रिक सभ्यता की अवमानना की है। यह उस राष्ट्रवाद से धोखा है जो कश्मीरियों को भारतीय संघ का हिस्सा बनाता है।
इसकी कीमत शायद पूरा देश चुकाए। लोकतांत्रिक पार्टियों और उनके नेताओं को कैद कर सरकार ने अलोकतांत्रिक ताकतों को रास्ता दे दिया है। राज्य को मिले विशेष दर्जे के सहारे ही कश्मीरी नेता स्वायत्तता के बचाव के लिए मुख्यधारा की राजनीति में भाग ले पाते थे। अब यह सहारा छिनने से राज्य के शीर्ष नेता अप्रासंगिक और चरमपंथियों को रोकने में शक्तिहीन हो गए हैं।
नई दिल्ली ने दावा किया था कि सरकार आतंकवाद के खिलाफ जंग ‘जीत’ रही है, लेकिन इसने शायद आतंकवादियों को नया मौका दे दिया है कि वे इसे नया अन्याय बता सकें। सरकार ने बेवजह बहादुर सैनिकों को खतरे में डाल दिया है। आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं और लगभग रोज ‘एनकाउंटर’ की खबरें आ रही हैं, जिनमें सैनिक उन आंतकियों से लड़ते हुए जान गंवा रहे हैं, जिनके खत्म होने का दावा 370 के हटने पर किया गया था।
कोविड-19 महामारी के दौरान भी घाटी में इंटरनेट सेवाएं अवरुद्ध रहीं, जिससे संक्रमण रोकने के प्रयास प्रभावित हुए। कश्मीर में अभी भी 4जी नहीं है, जिससे छात्रों और ऑनलाइन आंत्रप्रेन्योर्स के प्रयास प्रभावित हो रहे हैं। ‘सामान्य जीवन’ अब भी दूर की कौड़ी लगता है।
‘लॉकडाउन के अंदर लॉकडाउन’ और आतंकी वारदातें सरकार के उन संवैधानिक बदलावों के दावों को कमजोर कर रहे हैं, जिनका उद्देश्य समृद्धि और आर्थिक वृद्धि लाना था। इससे कश्मीरियों में यह भावना बढ़ रही है कि वे ‘सेकंड-क्लास नागरिक’ हैं। भारत की लोकतांत्रिक विविधता को उसकी मजबूती के रूप में देखने वाले वे अब ऐसी सरकार का सामना कर रहे हैं जो इसकी सारी निशानियां मिटा देना चाहती है।
यह भारत के लोकतंत्रवादियों और उसके अल्पसंख्यकों के लिए अमंगल समय है। यह पूरा मामला हमारे लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता के लिए जो मिसाल पेश कर रहा है, वह चिंताजनक है। कोई यह न कहे कि हमें चेतावनी नहीं दी गई थी। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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